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कंकाल-अध्याय -६१

मिरजा के आ जाने से गाँव-भर में एक आतंक छा गया। मेरे नाना का बुढ़ापा चैन से कटने लगा। सोमनाथ मुझे हिन्दी पढ़ाने लगे, और मैं माता-पिता की गोद में सुख से बढ़ने लगी। सुख के दिन बड़ी शीघ्रता से खिसकते हैं। एक बरस के सब महीने देखते-देखते बीत गये। एक दिन संध्या में हम सब लोग अलाव के पास बैठे थे। किवाड़ बन्द थे। सरदी से कोई उठना नहीं चाहता था। ओस से भीगी रात भली मालूम होती थी। धुआँ ओस के बोझ से ऊपर नहीं उठ सकता था। सोमनाथ ने कहा, 'आज बरफ पड़ेगा, ऐसा रंग है।' उसी समय बुधुआ ने आकर कहा, 'और डाका भी।' सब लोग चौकन्ने हो गये। मिरजा ने हँसकर कहा, 'तो क्या तू ही उन सबों का भेदिया है।' 'नहीं सरकार! यह देश ही ऐसा है, इसमें गूजरों की...' बुधुआ की बात काटते हुए सोमदेव ने कहा, 'हाँ-हाँ, यहाँ के गूजर बड़े भयानक हैं।' 'तो हम लोगों को भी तैयार रहना चाहिए!' कहकर, 'आप भी किसकी बात में आते हैं। जाइये, आराम कीजिये।' सब लोग उस समय तो हँसते हुए उठे, पर अपनी कोठरी में आते समय सबके हाथ-पैर बोझ से लदे हुए थे। मैं भी माँ के साथ कोठरी में जाकर जो रही। रात को अचानक कोलाहल सुनकर मेरी आँख खुल गयी। मैं पहले सपना समझकर फिर आँख बन्द करने लगी, पर झुठलाने से कठोर आपत्ति नहीं झूठी हो सकती है। सचमुच डाका पड़ा था, गाँव के सब लोग भय से अपने-अपने घरों में घुसे थे। मेरा हृदय धड़कने लगा। माँ भी उठकर बैठी थी। वह भयानक आक्रमण मेरे नाना के घर पर ही हुआ था। रहमत खाँ, मिरजा और सोमदेव ने कुछ काल तक उन लोगों को रोका, एक भीषण काण्ड उपस्थित हुआ। हम माँ-बेटियाँ एक-दूसरे के गले से लिपटी हुई थर-थर काँप रही थीं। रोने का भी साहस न होता था। एक क्षण के लिए बाहर का कोलाहल रुका। अब उस कोठरी के किवाड़ तोड़े जाने लगे, जिसमें हम लोग थे। भयानक शब्द से किवाड़े टूटकर गिरे। मेरी माँ ने साहस किया, वह लोगों से बोली, 'तुम लोग क्या चाहते हो?' 'नवाबी का माल दो बीबी! बताओ कहाँ है?' एक ने कहा। मेरी माँ बोली, 'हम लोगों की नवाबी उसी दिन गयी, जब मुगलों का राज्य गया! अब क्या है, किसी तरह दिन काट रहे हैं।' 'यह पाजी भला बतायेगी!' कहकर दो नर पिशाचों ने उसे घसीटा। वह विपत्ति की सताई मेरी माँ मूर्च्छित हो गयी; पर डाकुओं में से एक ने कहा, 'नकल कर रही है!' और उसी अवस्था में उसे पीटने लगे। पर वह फिर न बोली। मैं अवाक् कोने में काँप रही थी। मैं भी मूर्च्छित हो रही थी कि मेरे कानों में सुनाई पड़ा, 'इसे न छुओ, मैं इसे देख लूँगा।' मैं अचेत थी। इसी झोंपड़ी के एक कोने में मेरी आँखें खुलीं। मैं भय से अधमरी हो रही थी। मुझे प्यास लगी थी। ओठ चाटने लगी। एक सोलह बरस के युवक ने मुझे दूध पिलाया और कहा, 'घबराओ न, तुम्हें कोई डर नहीं है। मुझे आश्वासन मिला। मैं उठ बैठी। मैंने देखा, उस युवक की आँखों में मेरे लिए स्नेह है! हम दोनों के मन में प्रेम का षड्यंत्र चलने लगा और उस सोलह बरस के बदन गूजर की सहानुभूति उसमें उत्तेजना उत्पन्न कर रही थी। कई दिनों तक जब मैं पिता और माता का ध्यान करके रोती, तो बदन मेरे आँसू पोंछता और मुझे समझाता। अब धीरे-धीरे मैं उसके साथ जंगल के अंचलों में घूमने लगी। गूजरों के नवाब का नाम सुनकर बहुत धन की आशा में डाका डाला था, पर कुछ हाथ न लगा। बदन का पिता सरदार था! वह प्रायः कहता, 'मैंने इस बार व्यर्थ इतनी हत्या की। अच्छा, मैं इस लड़की को जंगल की रानी बनाऊँगा।' बदन सचमुच मुझसे स्नेह करता। उसने कितने ही गूजर कन्याओं के ब्याह लौटा दिये, उसके पिता ने भी कुछ न कहा। हम लोगों का स्नेह देखकर वह अपने अपराधों का प्रायश्चित्त करना चाहता था; बाधक था हम लोगों का धर्म। बदन ने कहा, 'हम लोगों को इससे क्या तुम जैसे चाहो भगवान को मानो, मैं जिसके सम्बन्ध में स्वयं को कुछ समझता नहीं, अब तुम्हें क्यों समझाऊँ।' सचमुच वह इन बातों को समझाने की चेष्टा भी नहीं करता। वह पक्का गूजर जो पुराने संस्कार और आचार चले आते थे। उन्हीं कुल परम्परा के कामों के कर लेने से कृतकृत्य हो जाता। मैं इस्लाम के अनुसार प्रार्थना करती, पर इससे हम लोगों के मन में सन्देह न हुआ। हमारे प्रेम ने हम लोगों को एक बन्धन में बाँध दिया और जीवन कोमल होकर चलने लगा। बदन ने अपना पैतृक व्यवसाय न छोड़ा, मैं उससे केवल इसी बात से असन्तुष्ट रहती। यौवन की पहली ऋतु हम लोगों के लिए जंगली उपहार लेकर आयी। मन में नवाबी का नशा और माता की सरल सीख, इधर गूजर की कठोर दिनचर्या! एक विचित्र सम्मेलन था। फिर भी मैं अपना जीवन बिताने लगी। 'बेटी गाला! तू जिस अवस्था में रह; जगत्पिता को न भूल! राजा कंगाल होते हैं और कंगाल राजा हो जाते हैं, पर वह सबका मालिक अपने सिंहासन पर अटल बैठा रहता है। जिसे हृदय देना, उसी को शरीर अर्पण करना, उसमें एकनिष्ठा बनाये रखना। मैं बराबर जायसी की 'पद्मावत' पढ़ा करती हूँ। वह स्त्रियों के लिए जीवन-यात्रा में पथ-प्रदर्शक है। स्त्रियों को प्रेम करने के पहले यह सोच लेना चाहिए-मैं पद्मावती हो सकती हूँ कि नहीं गाला! संसार दुःख से भरा है। सुख के छींटे कहीं से परमपिता की दया से आ जाते हैं। उसकी चिन्ता न करना, उसके न पाने से दुःख भी न मानना। मैंने अपने कठोर और भीषण पति की सेवा सच्चाई से की है और चाहती हूँ कि तू भी मेरी जैसी हो। परमपिता तेरा मंगल करे। पद्मावत पढ़ना कभी न छोड़ना। उसके गूढ़ तत्त्व जो मैं तुझे बराबर समझाती आयी हूँ, तेरी जीवन-यात्रा को मधुरता और कोमलता से भर देंगे। अन्त में फिर तेरे लिए मैं प्रार्थना करती हूँ, तू सुखी रहे।' की जंगली लड़की के लिए हलचल मच गयी। विरस जीवन में एक नवीन स्फूर्ति हुई। वह हँसते हुए गाला के पास पहुँचा। गाला इस समय अपने नये बुलबुल को चारा दे रही थी। 'पढ़ चुके! कहानी अच्छी है न?' गाला ने पूछा। 'बड़ी करुण और हृदय में टीस उत्पन्न करने वाली कहानी है, गाला! तुम्हारा सम्बन्ध दिल्ली के राज-सिंहासन से है-आश्चर्य!' 'आश्चर्य किस बात का नये! क्या तुम समझते हो कि यही बड़ी भारी घटना है। कितने राज रक्तपूर्ण शरीर परिश्रम करते-करते मर-पच गये, उस अनन्त अनलशिखा में, जहाँ चरम शीतलता है, परम विश्राम है, वहाँ किसी तरह पहुँच जाना ही तो इस जीवन का लक्ष्य है।' नये अवाक् होकर उसका मुँह देखने लगा। गाला सरल जीवन की जैसे प्राथमिक प्रतिमा थी। नये ने साहस कर पूछा, 'फिर गाला, जीवन के प्रकारों से तुम्हारे लिए चुनाव का कोई विषय नहीं, उसे बिताने के लिए कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं।' 'है तो नये! समीप के प्राणियों में सेवा-भाव, सबसे स्नेह-सम्बन्ध रखना, यह क्या मनुष्य के लिए पर्याप्त कर्तव्य नहीं।' 'तुम अनायास ही इस जंगल में पाठशाला खोलकर यहाँ के दुर्दान्त प्राणियों के मन में कोमल मानव-भाव भर सकती है।' 'ओहो! तुमने सुना नहीं, सीकरी में एक साधु आया है, हिन्दू-धर्म का तत्त्व समझाने के लिए! जंगली बालकों की एक पाठशाला उसने खोल दी है। वह कभी- कभी यहाँ भी आता है, मुझसे भी कुछ ले जाता है; पर मैं देखती हूँ कि मनुष्य बड़ा ढोंगी जीव है-वह दूसरों को वही समझाने का उद्योग करता है, जिसे स्वयं कभी भी नहीं समझता। मुझे यह नही रुचता! मेरे पुरखे तो बहुत पढ़े-लिखे और समझदार थे, उनके मन की ज्वाला कभी शान्त हुई?'

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